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इन्द्रो॒तिभि॑र्बहु॒लाभि॑र्नो अ॒द्य या॑च्छ्रे॒ष्ठाभि॑र्मघवञ्छूर जिन्व। यो नो॒ द्वेष्ट्यध॑रः॒ सस्प॑दीष्ट॒ यमु॑ द्वि॒ष्मस्तमु॑ प्रा॒णो ज॑हातु॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrotibhir bahulābhir no adya yācchreṣṭhābhir maghavañ chūra jinva | yo no dveṣṭy adharaḥ sas padīṣṭa yam u dviṣmas tam u prāṇo jahātu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑। ऊ॒तिऽभिः॑। ब॒हु॒लाभिः॑। नः॒। अ॒द्य। या॒त्ऽश्रे॒ष्ठाभिः॑। म॒घ॒ऽव॒न्। शू॒र॒। जि॒न्व॒। यः। नः॒। द्वेष्टि॑। अध॑रः। सः। प॒दी॒ष्ट॒। यम्। ऊँ॒ इति॑। द्वि॒ष्मः। तम्। ऊँ॒ इति॑। प्रा॒णः। ज॒हा॒तु॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» मन्त्र:21 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:23» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:21


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त ! (यः) जो (अधरः) नीच (नः) हम लोगों से द्वेष्टि वैर करता है (सः) वह दुःख को (पदीष्ट) प्राप्त होवे (यम्) जिसको (उ) और हम लोग (द्विष्मः) द्वेष करें (तम्) उसका (उ) भी (प्राणः) हृदयस्थ वायु (जहातु) त्याग करे। और हे (मघवन्) बहुत श्रेष्ठ धन से युक्त (शूर) दुष्टों के नाशकर्त्ता आप (बहुलाभिः) बहुत (श्रेष्ठाभिः) उत्तम (ऊतिभिः) रक्षा आदिकों से (नः) हम लोगों को (यात्) प्राप्त होवे (अप, जिन्व) प्रसन्न कीजिये ॥२१॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोगों को दुष्ट कर्म करनेवाला पुरुष द्वेष करने योग्य और धर्मात्मा सत्कार करने योग्य है। जितने प्रजा की रक्षा करने और दुष्ट पुरुषों के निवारण करने में साधन अपेक्षित होवें, उनको ग्रहण करके श्रेष्ठ पुरुषों का पालन और दुष्टों का निवारण राजा आदि निरन्तर करें ॥२१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! योऽधरो नो द्वेष्टि स दुःखं पदीष्ट यमु वयं द्विष्मस्तमु प्राणो जहातु। हे मघवन्त्सूर भवान् बहुलाभिः याच्छ्रेष्ठाभिर्नोऽस्मान् अद्य जिन्व ॥२१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (ऊतिभिः) रक्षादिभिः (बहुलाभिः) (नः) अस्मान् (अद्य) (याच्छ्रेष्ठाभिः) शत्रुवधकर्म्मण्युत्तमाभिः (मघवन्) बहुपूजितधनयुक्त (शूर) दुष्टानां हिंसक (जिन्व) प्रसादय (यः) (नः) अस्मान् (द्वेष्टि) वैरयति (अधरः) नीचः (सः) (पदीष्ट) प्राप्नुयात् (यम्) (उ) (द्विष्म) (तम्) (उ) (प्राणः) (जहातु) त्यजतु ॥२१॥
भावार्थभाषाः - विदुषां दुष्टकर्मैव द्वेष्यो धर्मात्मा सत्कर्त्तव्यो भवति यावन्ति प्रजारक्षायां दुष्टनिवारणे च साधनान्यपेक्षितानि स्युस्तावन्त्यादाय श्रेष्ठपालनं दुष्टनिवारणं राजादयः सततं कुर्युः ॥२१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -विद्वान लोकांनी दुष्ट कर्म करणाऱ्या पुरुषाचा द्वेष व धर्मात्मा श्रेष्ठ पुरुषांचा सत्कार करावा. प्रजेचे रक्षण व दुष्ट पुरुषांचे निवारण करण्यासाठी जी साधने अपेक्षित आहेत त्यांना ग्रहण करून श्रेष्ठ पुरुषांचे पालन व दुष्टांचे निवारण राजा वगैरेनी करावे. ॥ २१ ॥